शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

यूट्यूब के एक वीडियो में कहा गया है कि एचपी कंपनी के लैपटॉप में लगे 'फ़ेस रिकगनिशन' यानी चेहरा पहचानने वाला कैमरा काले चेहरों को नहीं पहचान पाता.इस वीडियो को अब तक दस लाख से अधिक लोगों ने देखा इस महीने के शुरुआत में लगाए गए इस वीडियो में दो पात्र हैं, 'ब्लैक देसी' और उसकी सहयोगी 'व्हाइट वांडा'.
                                                                जब वांडा, जो एक श्वेत महिला हैं, जब इस कैमरे के सामने आती हैं जो कैमरा उनके चेहरे पर ज़ूम करता है और वो अगर अपने चेहरा हिलाती डुलाती हैं तो कैमरा उनकी ओर घूमता है.लेकिन जब देसी, जो एक अश्वेत पुरुष हैं इस कैमरे के सामने आते हैं तो और ऐसा ही करते हैं तो कैमरा ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं देता.हालांकि यह वीडियो फ़िल्म मज़े लेने के अंदाज़ में बनाई गई है लेकिन इसका शीर्षक है, 'एचपी कंप्यूटर्स आर रेसिस्ट' यानी एचपी के कंप्यूटर रंगभेदी हैं.इस फ़िल्म पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए एचपी के प्रवक्ता ने  कहा, "इस बड़े मुद्दे की ओर एचपी के फ़ेस ट्रैकिंग सॉफ्टवेयर की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है, ऐसा लगता है कि वह उस समय काम नहीं करता जब चेहरे पर पर्याप्त रोशनी न पड़ रही हो."उन्होंने कहा है, "हमने इसे गंभीरता से लिया है और हम अपने पार्टनर्स के साथ इस पर काम कर रहे हैं."

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नस्ल

 भेदी                   मिशेल की नस्लभेदी तस्वीर, माफ़ी मांगी
 बात
 बुरी
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व्हाइट हाउस ने इस मामले पर कोई टिप्पणी नहीं की है


अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा की एक नस्लभेदी तस्वीर के लिए गूगल ने माफ़ी मांगी है.
जब कोई व्यक्ति 'गूगल सर्च इंजन' में मिशेल ओबामा की तस्वीर ढूंढ़ता है तो उसे एक ऐसी तस्वीर दिखती है जो नस्लभेदी और अप्रिय है.
इस तस्वीर को मिशेल ओबामा की असली तस्वीर के साथ छेड़-छाड़ कर तैयार किया गया है.गूगल ने 'ऑफ़ेनसिव सर्च रिज़ल्ट' तस्वीर के ऊपर एक लिखित विज्ञापन दिया है जिसमें लिखा हुआ है, "हम मानते हैं कि कभी-कभी हमारे सर्च इंजन में परिणाम जो आते हैं वह अप्रिय हो सकते हैं."
यदि आपको गूगल का इस्तेमाल करते हुए बुरा अनुभव हुआ है, हम माफ़ी मांगते हैं
                                                                              गूगल कंपनी
गूगल कंपनी ने कहा है, "यदि आपको गूगल का इस्तेमाल करते हुए बुरा अनुभव हुआ है, हम माफ़ी मांगते हैं. "
हालांकि गूगल ने अपने सर्च इंजन से उस तस्वीर को नहीं हटाया हैव्हाइट हाउस ने इस तस्वीर पर कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है.

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

डाक्टर भगवान है कुछ भी कर सकता है

एक तीमारदार की कथित बदसलूकी से भन्नाए मेरठ के जूनियर डाक्टरों ने पहले तो उसेपरिवार सहित पीटा और जब इतने से मन नहीं भरा तो उन्होंने अन्य मरीजों का लात-घूंसों से इलाज किया। यहां तक कि उनके ड्रिप तक निकालकर फेंक दिए। इस घटना से सन्न सरदार वल्लभ भाई पटेल मेडिकल कालेज प्रशासनडाक्टर भगवान है कुछ भी कर सकता है  ने जब 24 घंटे बाद दो छात्रों को निलंबित कर मरीजों के आंसू पोंछने चाहे तो जूनियर डाक्टर सीनाजोरी पर उतर आए। बुधवार को मरीजों को पीटने के बाद ही हड़ताल पर चले गए जूनियर डाक्टरों का कहना है कि यदि निलंबन वापस नहीं हुआ तो वे एक साथ इस्तीफा दे देंगे। मरीजों-तीमारदारों के पिटाई प्रकरण की जांच कमेटी की प्राथमिक रिपोर्ट में दो जूनियर डाक्टर दोषी पाए गए। कालेज प्रशासन ने डॉ. गौरव तथा डॉ. लीप को निलंबित कर दिया। इसकी जानकारी जैसे ही जूनियर डाक्टरों को मिली वे आक्रोशित हो गए। प्राचार्य से मिले जूनियर डाक्टरों ने बिना गलती कार्रवाई होने की बात कहते हुए रोष जताया और साथ ही धमकी दी कि यदि शुक्रवार शाम छह बजे तक दोनों छात्रों का निलंबन वापस नहीं होता तो सभी जूनियर डाक्टर इस्तीफा दे देंगे। वे बुधवार से ही इमरजेंसी सेवाओं को छोड़कर कोई काम नहीं कर रहे हैं।

       डोक्टर साहिब हैं और साहिब कुछ भी कर सकता है

महंगाई हो गई है ?



आवश्यक वस्तुओं की कमर तोड़ महंगाई के इस जमाने में क्या आप 12.50 रुपये में शाकाहारी थाली मिलने की कल्पना कर सकते हैं? संसद भवन की कैंटीन में यह सहज संभव और सुलभ है। इतना सस्ता खाना न केवल संसद सदस्यों, बल्कि संसद के कर्मचारियों, सुरक्षाकर्मियों और मान्यता प्राप्त पत्रकारों को भी उपलब्ध है। यह सस्ता भोजन आम आदमी की गाढ़ी कमाई यानी सरकारी सब्सिडी की देन है। भारी भरकम सब्सिडी के चलते ही संसद की कैंटीनों में दाल, सब्जी, चार चपाती, चावल या पुलाव, दही और सलाद के साथ शाकाहारी थाली की कीमत 12.50 रुपये है। मांसाहारी थाली की कीमत 22 रुपये है। दही चावल केवल 11 रुपये में उपलब्ध है। वेज पुलाव आठ रुपये, चिकन बिरयानी 34 रुपये, फिश करी और चावल 13 रुपये, राजमा चावल सात रुपये, चिकन करी 20.50 रुपये, चिकन मसाला 24.50 रुपये और बटर चिकन 27 रुपये। खीर की कीमत 5.50 रुपये कटोरी, छोटा फ्रूट केक 9.50 रुपये और फ्रूट सलाद की कीमत सात रुपये है। आश्चर्य नहीं कि इसी कारण हमारे सांसदों को इसका अहसास नहीं हो पा रहा है कि बढ़ती महंगाई आम आदमी के लिए कितनी कष्टकारी है? संसद भवन में भोजन इकाइयों का संचालन भारतीय रेलवे के हाथ है। इनमें पुस्तकालय और एनेक्सी में स्थित कैंटीन भी शामिल है। यहां दशकों से कीमतों वैसी हैं। एक अधिकारी ने बताया कि सरकार ने इस वित्तीय वर्ष के लिए संसद की कैंटीनों के लिए 5.3 करोड़ रुपये का आवंटन किया है। इसमें लोकसभा ने करीब 3.55 करोड़ रुपये और राज्यसभा ने 1.77 करोड़ रुपये का भुगतान किया। अधिकारी ने बताया कि अंतिम बार संसद भवन में खाने की कीमतों की समीक्षा वर्ष 2004 में की गई थी। तेलुगू देशम पार्टी के सांसद के.येरन नायडू की अध्यक्षता में वर्ष 2005 में खाने की दरों की समीक्षा के लिए एक संसदीय समिति का गठन किया गया था, लेकिन समिति ने न तो अपनी रिपोर्ट सौंपी और न ही दरों में कोई बदलाव किया गया

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

मुसीबत का पिटारा {जमू - कश्मीर}

जब फज्ल अली आयोग ने 1954 में राज्यों के पुनर्गठन पर रिपोर्ट पेश की थी, तब मैं भारत के गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत का सूचना अधिकारी था। प्रस्तावों पर कार्य के समय पंत प्राय: कहा करते थे कि उन्होंने भारत के मानचित्र के पुनर्रेखांकन का विवादास्पद कार्य हाथ में क्यों लिया, जबकि देश के सामने अनेक ऐसी समस्याएं मौजूद हैं, जिन पर तत्काल ध्यान देना जरूरी है। 55 वर्ष बाद राष्ट्र शासकों से यही प्रश्न फिर कर सकता है। वास्तव में, इस दौरान विद्रोह, आतंकवाद, मूल्य वृद्धि और बेरोजगारी जैसी समस्याएं अधिक विकराल हुई हैं। इस मुश्किल समय को देखते हुए दक्षिण में आंध्र प्रदेश से अलग कर तेलंगाना राज्य बनाने को लेकर इतनी जल्दबाजी नहीं दिखाई जानी चाहिए थी। मंदी के बाद भारत विकास की लय पकड़ता लग रहा है। किंतु कांग्रेस तेलंगाना राष्ट्रीय पार्टी के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन से घबरा गई और उसने आधी रात को ही उनकी मांग मान ली। जब अनेक जातीय अथवा भाषायी समूह अपने लिए अलग राज्य चाहते है, तब क्या नई दिल्ली को मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ना चाहिए था? देश में सत्तर प्रतिशत लोग बेहद गरीब हैं। सरकार का पहला काम तो उनके लिए रोजी-रोटी जुटाना होना चाहिए था। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी तब घबरा गए थे जब आंध्र प्रदेश के पोट्टी श्रीरामुलू ने आमरण अनशन किया था। उसी समय फज्ल अली आयोग की नियुक्ति की गई थी। बाद में नेहरू ने यह स्वीकार किया था कि उनसे गलती हुई है। उन्हें राज्यों के पुनर्गठन से पहले अन्य गहन समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए था। दरअसल, संविधान सभा द्वारा नियुक्त दार समिति ने तो कहा भी था कि नए राज्यों के गठन के लिए कुछ वर्ष प्रतीक्षा की जा सकती है। फिर भी नेहरू इस दिशा में आगे बढ़ गए। जहां तक तेलंगाना का सवाल है, फज्ल अली आयोग ने उसके गठन की अनुशंसा इसलिए की क्योंकि यह क्षेत्र बुनियादी तौर पर निजाम राज्य का हिस्सा रहा है जो भाषायी और सांस्कृतिक दृष्टि से शेष आंध्र से अलग है। हैदराबाद और सिकंद्राबाद के जुड़वा नगर उर्दू भाषी थे और वे आंध्र राज्य में फिट नहीं बैठते, जिसकी भाषा तेलगू है। यह अलग बात है कि पिछले पचास वर्षो में राज्य प्रशासनिक और आर्थिक दृष्टि से एकीकृत हो गया है। तेलंगाना की घोषणा के बाद आंध्र प्रदेश को अखंड रखने की आवाज उठ रही हैं, जो सही भी हैं। जब नेहरू ने तेलंगाना को आंध्र में समाहित किया था तो प्रबल विरोध हुआ था, जैसाकि गुजरात और महाराष्ट्र को बलात मिलाकर एक राज्य बनाने का हुआ था। आंदोलन के बाद गुजरात अलग राज्य बन गया किंतु तेलंगाना आंध्र प्रदेश का भाग ही बना रहा, हालांकि अलग राज्य की मांग दबी नहीं थी। देश में बहस सरकार की तेलंगाना की मांग मानने में की गई जल्दबाजी को लेकर हो रही है। ऐसी क्या जल्दी थी कि केंद्र सरकार ने आननफानन में राज्य को विभाजित करने की घोषणा कर दी। इससे यह संदेश गया है कि यदि दृढ़निश्चयी तत्व सड़कों पर उतर आते हंै, तो नई दिल्ली को झुकाया जा सकता है। इसमें हिंसा का भी योगदान है। आंदोलनकारी इस आधार पर हिंसा को न्यायसंगत ठहराते है कि उनकी मांग सही है। वे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए सार्वजनिक संपत्ति को जलाना या कानून व्यवस्था भंग करना सही मानते हैं। सारे देश में आज तनाव है। इसमें संदेह है कि जब तेलंगाना के गठन पर फैसला करने के लिए सोनिया गांधी और उनके राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल समेत शीर्ष कांग्रेसी नेता जुटे थे तो उनके मन में सबसे अधिक चिंता यह थी कि यह फैसला किस प्रकार खुद को वोटों में तब्दील कर लेगा। के. चंद्रशेखर राव ने कहा कि सोनिया मां ने उनसे पुत्रवत व्यवहार करते हुए उन्हें तेलंगाना दे दिया। जब अंग्रेजों ने राज्यों का गठन किया था तो वे ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों से प्रेरित थे। कांग्रेस पर राजनीतिक आग्रह हावी हैं, जैसे कि भाजपा पर तब हावी थे, जब उसने बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से काट कर झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल राज्यों का गठन किया था। भाषायी आधार पर राज्यों का गठन तो समझ में आता है, किंतु हर जातीय समूह को रिझाना तो आग से खेलने जैसा है। छोटे राज्यों का स्वागत है क्योंकि वे लोगों के लिए अधिक सुविधाजनक हैं। स्थानीय आवश्यकताओं की अपनी महत्ता है और बड़े राज्यों की तुलना में छोटे राज्यों में सरकार उन पर अधिक ध्यान दे पाती है। प्रशासन भी जुड़ाव महसूस करता है और लोगों की जरूरतों पर भी जल्द ध्यान देता है। किंतु सवाल यह है कि राज्य कितने छोटे हों। आर्थिक व्यवहार्यता और ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पक्ष भी प्रासंगिक हंै। भाजपा ने राजनीतिक कारणों से जो तीन राज्य बनाए थे वे केंद्र के सहारे चल रहे हैं। वे भ्रष्टाचार के लिए जाने जाते हैं। झारखंड की तो एक के बाद एक भ्रष्ट मुख्यमंत्रियों को चुनने की परंपरा है। उनमें से एक तो जेल में बंद हैं। पिछले मुख्यमंत्री मधु कौड़ा ने तो दो वर्ष से भी कम समय में कथित तौर पर चार हजार करोड़ रुपए बनाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बाद सबसे महत्वपूर्ण मंत्री प्रणब मुखर्जी ने घोषणा की है कि तेलंगाना के बाद अब और राज्य नहीं बनेंगे। यह बयान घोड़े के भाग जाने के बाद दरवाजे पर कुंडी लगाने जैसा है। केंद्र ऐसी सपाट घोषणा कैसे कर सकता है, जबकि वह हाल ही में तेलंगाना के मामले में दबाव के आगे झुका है? और अब तो आठ स्थानों पर आंदोलन और अनशन का सिलसिला चल रहा है, जो अपना अलग राज्य चाहते हैं। तेलंगाना की घोषणा करने से पहले सरकार को कम से कम आंध्र के मुख्यमंत्री से तो परामर्श करना ही चाहिए था। विधानसभा जनमत संग्रह या प्रस्ताव पारित कराने पर जोर दे सकती थी। केंद्र ने ऐसा कुछ नहीं किया और बौखलाहट में आग को और भड़का दिया। विकास का अभाव और प्रशासन का उपेक्षा भाव लोगों में पनप रहे आक्रोश का कारण है। उनकी बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं और न ही संरक्षक के रूप में निष्पक्ष पुलिस ही उपलब्ध है। लोगों में यह सोच बढ़ती जा रही है कि उन्हें काम निकालने के लिए दबाव डालना होगा। केंद्र ने जो कुछ किया है, उससे देश भर में असंतोष बढ़ेगा। संकेत तो उभर ही रहे हंै। राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक और आयोग का गठन तो मुसीबतों का पिटारा खोलने जैसा है। एक छोटा सा भाषायी समूह भी अपने लिए अलग राज्य का दावा कर सकता है। अनेक संकीर्णतावादी आमरण अनशन शुरू कर सकते हैं, क्योंकि अपनी मांगें जल्द मनवाने का यही सबसे बेहतर उपाय है। इससे देश की एकता पर भी आंच आ सकती है। राजनीतिक दलों को एक साथ बैठकर इस बारे में विचार करना चाहिए कि उन लोगों तक कैसे पहुंचा जाए जिन्हें शासन की ओर से कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है। चुनावी सुधारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि लोकतांत्रिक निर्वाचण प्रक्रिया में छोटे समूहों की भी सहभागिता हो। इसके लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व का सहारा लिया जा सकता है। सरकार तेलंगाना की अनदेखी नहीं कर सकती। देश के समक्ष यह चिंता और चिंतन का समय है। कांग्रेस ने अपना फैसला चाहे बिना सोचे-विचारे लिया हो, सभी राजनीतिक दलों को इस समय आग बुझाने में सहायता करनी चाहिए। अकेली कांग्रेस नहीं, सब मिलकर इस समस्या को सुलझा सकते हैं।

गंगाजल से हुई मौत!


न जाने कितना सच है। डाक्टरों के दावों पर यकीन करें तो पोलैंड के युवक मैटीज लेसजेक ट‌र्स्की की मौत गंगा जल से हुई है। अगर यह हकीकत है तो उन करोड़ों लोगों की आस्था को जबरदस्त झटका है, जो अब तक गंगा तेरा पानी अमृत अवधारणा को दिल से लगाए हुए हैं। यूं तो वैज्ञानिक निष्कर्षो में बार-बार चेताया जाता रहा है कि अवजल और गंगाजल के अनुपात में निरंतर गिरावट से गंगा नाले का रूप अख्तियार करती जा रही हैं। इसका पानी जीव-जंतुओं के पीने योग्य नहीं रहा। लेकिन हालात इससे ज्यादा बिगड़े नजर आते हैं। पोलैंड का मैटीज लेसजेक ट‌र्स्की (29) एक सप्ताह पूर्व बनारस आया था। एक गेस्टहाउस में ठहरा था। गंगा स्नान के दौरान पानी उसकी नाक में घुस गया। इसके बाद उसकी हालत बिगड़ने लगी। गेस्टहाउस में ठहरे एक और शख्स नार्वे के डेविड ने मैटीज लेसजेक को 19 दिसंबर को वाराणसी के ही लंका स्थित एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया। चिकित्सकों ने बताया कि गंगा के पानी से इंफेक्शन होने के कारण लेसजेक की हालत बिगड़ी। सोमवार को लेसेजेक की मौत हो गई। इलाज में लगे चिकित्सकों की टीम ने आफ द रिकार्ड बताया कि इंफेक्शन इतना फैल चुका था कि तत्काल उसपर नियंत्रण नहीं पाया जा सका। नतीजतन उसकी मौत हो गई। गंगा जल कैसे कहें: प्रो.चौधरी : बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर के कोआर्डिनेटर प्रो.यूके चौधरी कहते हैं- इसे गंगा जल कैसे कहें। इस समय नदी के किनारे-किनारे बीओडी लोड जहां जीरो होना चाहिए, वहां औसतन 10 पीपीएम और डीओ ... जहां छह के नीचे किसी भी दशा में नहीं होना चाहिए, वहां तीन पीपीएम देखा जा रहा है। अवजल और गंगाजल का अनुपात भी कम से कम हजार गुना होना चाहिए। यहां तो 30 फीसदी गंगा जल है तो 70 फीसदी अवजल। यह जल छूने योग्य नहीं है फिर स्नान की बात कहां से सोची जा सकती है। वैसे भी गंगा में गंगाजल आ कहां रहा है। इसका 95 फीसदी मौलिक जल हरिद्वार से ही पश्चिमी नदी को मोड़ दिया जा रहा है।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

धर्म का आधार

यह घटना उस समय की है, जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन मद्रास के एक ईसाई मिशनरी स्कूल के छात्र थे। वह बचपन



से बेहद कुशाग्र एवं तीव्र बुद्धि के थे। कम उम्र में ही उनकी गतिविधियां व उच्च विचार लोगों को हैरानी में डाल देते थे। एक बार उनकी कक्षा में एक अध्यापक पढ़ा रहे थे, जो बेहद संकीर्ण मनोवृत्ति के थे। पढ़ाने के क्रम में वह धर्म के बारे में बच्चों को बताने लगे और बताते-बताते ही वह हिंदू धर्म पर कटाक्ष करते हुए उसे दकियानूसी, रूढ़िवादी, अंधविश्वासी और न जाने क्या-क्या कहने लगे।






बालक राधाकृष्णन अध्यापक की ये बातें सुन रहे थे। अध्यापक के बोलने के बाद राधाकृष्णन अपने स्थान पर खड़े होकर अध्यापक से बोले, 'सर ! क्या आपका ईसाई मत दूसरे धर्मों की निंदा करने में विश्वास रखता है?' एक छोटे से बालक का इतना गूढ़ व गंभीर प्रश्न सुनकर अध्यापक चौंक गए। वाकई बालक की बात में शत-प्रतिशत सत्यता थी। दुनिया का प्रत्येक धर्म समानता व एकता का ही संदेश देता है। मगर अध्यापक एक नन्हे बालक के आगे अपनी पराजय कैसे मानते। वह संभलकर बोले, 'क्या हिंदू धर्म दूसरे धर्म का सम्मान करता है?' अध्यापक के यह कहते ही बालक राधाकृष्णन बोले, 'बिल्कुल सर। हिंदू धर्म किसी भी अन्य धर्म में कभी बुराई नहीं ढूंढता। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था -पूजा के अनेक तरीके हैं। अनेक मार्ग हैं। हर मार्ग एक ही लक्ष्य पर पहुंचाता है। क्या इस भावना में सब धर्मों को स्थान नहीं मिलता, सर? इसलिए हर धर्म के पीछे एक ही भावना है, वह तो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह अपनी आस्था किस में मानता है? किंतु कोई भी धर्म किसी अन्य धर्म की निंदा करने की शिक्षा कभी नहीं देता। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति वह है जो सभी धर्मों का सम्मान करे और उनकी अच्छी बातें ग्रहण करे।' बालक राधाकृष्णन का जवाब सुनकर अध्यापक हैरान हो गए। उन्होंने फिर कभी भविष्य में ऐसी बातें न करने का प्रण किया।

MANAV, PUNE का कहना है :आज कल धर्मके बहुत ढोल बज रहे है! हमें अब जागना है और धर्मके दल-दल से बहार निकलना है ! धर्म के कुछ हिदायते संस्कार अछे है ! लेकिन इन्सान में बहुत से भेड़िया है जो धर्म की आड़ लेकर दुसरे धर्मके लोगोंका तिरस्कार करते है ! हमें आधुनिक दुनियामे रहना है तो 2000-3000 हजार साल पुराने धर्मके विचार को भुलाकर इंसानियत के लिए एक दुसरेसे एकता करनी है ! अबतक धर्म जात-पात के नामपर बहुत खून बहा है और बह रहा है ! हम अब भगवान के भरोसे नहीं रह सकते ! आनेवाले समय में पृथ्वी पर बहुत संकट के बदल छानेवाले है, पीनेके पानीकी समस्या , तीसरा महायुद्ध होनेका खतरा , ग्लोबल वार्मिंग परमाणु हत्यार आतंकवादी लोगो के पास पहुन्चनेका खतरा , नई, नई बीमारिया का आगमन [जिस बीमारी के लिए दवाएं बनी नहीं गई है ] आनेवाले समयमे खाद्यान्न की कमी महसूस हो सकती है ! इस तरह के अनगिनत समस्या आने की सम्भावना है ! और इन समस्या से कोई धर्म हमें नहीं बचा सकता ! सिर्फ वैद्न्यानिक ही बचा सकते है !

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