बुधवार, 23 दिसंबर 2009

मुसीबत का पिटारा {जमू - कश्मीर}

जब फज्ल अली आयोग ने 1954 में राज्यों के पुनर्गठन पर रिपोर्ट पेश की थी, तब मैं भारत के गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत का सूचना अधिकारी था। प्रस्तावों पर कार्य के समय पंत प्राय: कहा करते थे कि उन्होंने भारत के मानचित्र के पुनर्रेखांकन का विवादास्पद कार्य हाथ में क्यों लिया, जबकि देश के सामने अनेक ऐसी समस्याएं मौजूद हैं, जिन पर तत्काल ध्यान देना जरूरी है। 55 वर्ष बाद राष्ट्र शासकों से यही प्रश्न फिर कर सकता है। वास्तव में, इस दौरान विद्रोह, आतंकवाद, मूल्य वृद्धि और बेरोजगारी जैसी समस्याएं अधिक विकराल हुई हैं। इस मुश्किल समय को देखते हुए दक्षिण में आंध्र प्रदेश से अलग कर तेलंगाना राज्य बनाने को लेकर इतनी जल्दबाजी नहीं दिखाई जानी चाहिए थी। मंदी के बाद भारत विकास की लय पकड़ता लग रहा है। किंतु कांग्रेस तेलंगाना राष्ट्रीय पार्टी के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन से घबरा गई और उसने आधी रात को ही उनकी मांग मान ली। जब अनेक जातीय अथवा भाषायी समूह अपने लिए अलग राज्य चाहते है, तब क्या नई दिल्ली को मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ना चाहिए था? देश में सत्तर प्रतिशत लोग बेहद गरीब हैं। सरकार का पहला काम तो उनके लिए रोजी-रोटी जुटाना होना चाहिए था। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी तब घबरा गए थे जब आंध्र प्रदेश के पोट्टी श्रीरामुलू ने आमरण अनशन किया था। उसी समय फज्ल अली आयोग की नियुक्ति की गई थी। बाद में नेहरू ने यह स्वीकार किया था कि उनसे गलती हुई है। उन्हें राज्यों के पुनर्गठन से पहले अन्य गहन समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए था। दरअसल, संविधान सभा द्वारा नियुक्त दार समिति ने तो कहा भी था कि नए राज्यों के गठन के लिए कुछ वर्ष प्रतीक्षा की जा सकती है। फिर भी नेहरू इस दिशा में आगे बढ़ गए। जहां तक तेलंगाना का सवाल है, फज्ल अली आयोग ने उसके गठन की अनुशंसा इसलिए की क्योंकि यह क्षेत्र बुनियादी तौर पर निजाम राज्य का हिस्सा रहा है जो भाषायी और सांस्कृतिक दृष्टि से शेष आंध्र से अलग है। हैदराबाद और सिकंद्राबाद के जुड़वा नगर उर्दू भाषी थे और वे आंध्र राज्य में फिट नहीं बैठते, जिसकी भाषा तेलगू है। यह अलग बात है कि पिछले पचास वर्षो में राज्य प्रशासनिक और आर्थिक दृष्टि से एकीकृत हो गया है। तेलंगाना की घोषणा के बाद आंध्र प्रदेश को अखंड रखने की आवाज उठ रही हैं, जो सही भी हैं। जब नेहरू ने तेलंगाना को आंध्र में समाहित किया था तो प्रबल विरोध हुआ था, जैसाकि गुजरात और महाराष्ट्र को बलात मिलाकर एक राज्य बनाने का हुआ था। आंदोलन के बाद गुजरात अलग राज्य बन गया किंतु तेलंगाना आंध्र प्रदेश का भाग ही बना रहा, हालांकि अलग राज्य की मांग दबी नहीं थी। देश में बहस सरकार की तेलंगाना की मांग मानने में की गई जल्दबाजी को लेकर हो रही है। ऐसी क्या जल्दी थी कि केंद्र सरकार ने आननफानन में राज्य को विभाजित करने की घोषणा कर दी। इससे यह संदेश गया है कि यदि दृढ़निश्चयी तत्व सड़कों पर उतर आते हंै, तो नई दिल्ली को झुकाया जा सकता है। इसमें हिंसा का भी योगदान है। आंदोलनकारी इस आधार पर हिंसा को न्यायसंगत ठहराते है कि उनकी मांग सही है। वे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए सार्वजनिक संपत्ति को जलाना या कानून व्यवस्था भंग करना सही मानते हैं। सारे देश में आज तनाव है। इसमें संदेह है कि जब तेलंगाना के गठन पर फैसला करने के लिए सोनिया गांधी और उनके राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल समेत शीर्ष कांग्रेसी नेता जुटे थे तो उनके मन में सबसे अधिक चिंता यह थी कि यह फैसला किस प्रकार खुद को वोटों में तब्दील कर लेगा। के. चंद्रशेखर राव ने कहा कि सोनिया मां ने उनसे पुत्रवत व्यवहार करते हुए उन्हें तेलंगाना दे दिया। जब अंग्रेजों ने राज्यों का गठन किया था तो वे ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों से प्रेरित थे। कांग्रेस पर राजनीतिक आग्रह हावी हैं, जैसे कि भाजपा पर तब हावी थे, जब उसने बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से काट कर झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल राज्यों का गठन किया था। भाषायी आधार पर राज्यों का गठन तो समझ में आता है, किंतु हर जातीय समूह को रिझाना तो आग से खेलने जैसा है। छोटे राज्यों का स्वागत है क्योंकि वे लोगों के लिए अधिक सुविधाजनक हैं। स्थानीय आवश्यकताओं की अपनी महत्ता है और बड़े राज्यों की तुलना में छोटे राज्यों में सरकार उन पर अधिक ध्यान दे पाती है। प्रशासन भी जुड़ाव महसूस करता है और लोगों की जरूरतों पर भी जल्द ध्यान देता है। किंतु सवाल यह है कि राज्य कितने छोटे हों। आर्थिक व्यवहार्यता और ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पक्ष भी प्रासंगिक हंै। भाजपा ने राजनीतिक कारणों से जो तीन राज्य बनाए थे वे केंद्र के सहारे चल रहे हैं। वे भ्रष्टाचार के लिए जाने जाते हैं। झारखंड की तो एक के बाद एक भ्रष्ट मुख्यमंत्रियों को चुनने की परंपरा है। उनमें से एक तो जेल में बंद हैं। पिछले मुख्यमंत्री मधु कौड़ा ने तो दो वर्ष से भी कम समय में कथित तौर पर चार हजार करोड़ रुपए बनाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बाद सबसे महत्वपूर्ण मंत्री प्रणब मुखर्जी ने घोषणा की है कि तेलंगाना के बाद अब और राज्य नहीं बनेंगे। यह बयान घोड़े के भाग जाने के बाद दरवाजे पर कुंडी लगाने जैसा है। केंद्र ऐसी सपाट घोषणा कैसे कर सकता है, जबकि वह हाल ही में तेलंगाना के मामले में दबाव के आगे झुका है? और अब तो आठ स्थानों पर आंदोलन और अनशन का सिलसिला चल रहा है, जो अपना अलग राज्य चाहते हैं। तेलंगाना की घोषणा करने से पहले सरकार को कम से कम आंध्र के मुख्यमंत्री से तो परामर्श करना ही चाहिए था। विधानसभा जनमत संग्रह या प्रस्ताव पारित कराने पर जोर दे सकती थी। केंद्र ने ऐसा कुछ नहीं किया और बौखलाहट में आग को और भड़का दिया। विकास का अभाव और प्रशासन का उपेक्षा भाव लोगों में पनप रहे आक्रोश का कारण है। उनकी बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं और न ही संरक्षक के रूप में निष्पक्ष पुलिस ही उपलब्ध है। लोगों में यह सोच बढ़ती जा रही है कि उन्हें काम निकालने के लिए दबाव डालना होगा। केंद्र ने जो कुछ किया है, उससे देश भर में असंतोष बढ़ेगा। संकेत तो उभर ही रहे हंै। राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक और आयोग का गठन तो मुसीबतों का पिटारा खोलने जैसा है। एक छोटा सा भाषायी समूह भी अपने लिए अलग राज्य का दावा कर सकता है। अनेक संकीर्णतावादी आमरण अनशन शुरू कर सकते हैं, क्योंकि अपनी मांगें जल्द मनवाने का यही सबसे बेहतर उपाय है। इससे देश की एकता पर भी आंच आ सकती है। राजनीतिक दलों को एक साथ बैठकर इस बारे में विचार करना चाहिए कि उन लोगों तक कैसे पहुंचा जाए जिन्हें शासन की ओर से कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है। चुनावी सुधारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि लोकतांत्रिक निर्वाचण प्रक्रिया में छोटे समूहों की भी सहभागिता हो। इसके लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व का सहारा लिया जा सकता है। सरकार तेलंगाना की अनदेखी नहीं कर सकती। देश के समक्ष यह चिंता और चिंतन का समय है। कांग्रेस ने अपना फैसला चाहे बिना सोचे-विचारे लिया हो, सभी राजनीतिक दलों को इस समय आग बुझाने में सहायता करनी चाहिए। अकेली कांग्रेस नहीं, सब मिलकर इस समस्या को सुलझा सकते हैं।

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